आरोग्यता के मूल में प्रकृति

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प्रकृति प्रभु का ही एक स्वभाव है; इसलिये इसका नाम 'प्रकृति' है

“प्रकृति से हम जितनी दूर जायेंगे, प्रकृति के नियमों का जितना अतिक्रमण करेंगे उतने ही रोगी, दुःखी और दीन-हीन होंगे। जितने ही प्रकृति के समीप रहेंगे, प्राकृतिक नियमों का पालन करेंगे, उतने ही स्वस्थ रहेंगे। प्रकृति के समीप रहना हमारा आदर्श है।”

report4india/Health. 

मानव चिकित्सा प्रणाली के मूल में दो प्रवृत्तियां हैं। पहला प्रकृति मनुष्य को जैसा चाहती है कि वह पूर्ण स्वस्थ, निरोग, पुष्ट, दीर्घजीवी, उन्मुक्त किस प्रकार रहे अर्थात् स्वास्थ्य संरक्षण के लिए किन-किन प्राकृतिक नियमों का पालन करे। इन प्रणालियों से उन प्राकृतिक नियमों का प्रतिपादन किया जाता है, जिनसे मनुष्य प्रकृति के निकट आता है और साहचर्य द्वारा पूर्ण स्वस्थ रहता है।

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अर्थात् प्रकृति से हम जितनी दूर जायेंगे, प्रकृति के नियमों का जितना अतिक्रमण करेंगे उतने ही रोगी, दुःखी और दीन-हीन होंगे। जितने ही प्रकृति के समीप रहेंगे, प्राकृतिक नियमों का पालन करेंगे, उतने ही स्वस्थ रहेंगे। प्रकृति के समीप रहना हमारा आदर्श है।

दूसरा है रोग का निवारण। प्रकृति के नियमों की अवहेलना करने से यदि हम रोगी हों जायें, तो पुनः किस प्रकार स्वास्थ्य लाभ करें? इसका उत्तर होगा कि हम पुनः प्राकृतिक नियमों का पालन करने लगें, दूरी छोड़कर पुनः प्रकृति के समीप आएं। सभी चिकित्सा प्रणालियां किसी न किसी रूप में प्रकृति के समीप आने की चेष्टा करती है।