बचपन में हम सरकारी किताबों में पढ़ा करते थे, ‘बिहार धन-संपदा से संपन्न राज्य है परंतु, बिहारी गरीब’। बिहार बंटवारे के बाद तो यह धनी राज्य भी नहीं रहा …बिहारी देश के सभी राज्यों में पलायन करने वाले एकमात्र नस्ली लोग बन गये जबकि निष्क्रिय लोक दबाव के चलते यहां कि राजनीति सत्ता-संघर्ष के दाव-पेंच में ही उलझी रही। …आइये, कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं से वर्तमान बिहार के राजनीतिक हालात को समझते हैं।
डॉ. मनोज कुमार तिवारी/ रिपोर्ट4इंडिया।
बिहार देश का एकमात्केर ऐसा राज्य है जहां के निवासियों को वहां की विकास से कोई मतलब नहीं होता। इसलिए कि वे बिहार के ही नहीं होते। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक बिहार के बहुतायत जनसंख्या रहकर छोटे-मोटे काम-धंधे करती रहती है। आखिरकार उन्हें यह समझ में तो आता ही होगा कि कि बिहार में उनके लिए छोटे-मोटे धंधे यानी सब्जी बेचना, ठेला लगाना, मजदूरी करना, रिक्शा-ऑटो-रिक्शा चलाना, पान-पकौड़ी बेचने का भी मौका नहीं है। …नहीं तो भला कोई अपना घर-बार-परिवार छोड़ क्यों पलायन करता।
पढ़ाई-लिखाई के लिए बिहार के ही छात्र सबसे अधिक दूसरे राज्यों में जाते हैं। वर्तमान में बिहार में कोई भी शैक्षिक संस्थान नहीं जहां देश के लोग पढ़ने जाने को रूचि रखते हों।
दरअसल, राज्य में सरकार को यहां के लोगों की न तो परवाह रहती है और न ही सरकार पर यहां के लोगों का कोई दबाव। हम रेलवे-सेना में नौकरी को लेकर बवाल तो देखते हैं लेकिन कभी हम बिहार सरकार के विभिन्न विभागों में नौकरी को लेकर कोई बवाल नहीं देखते।
बिहार में करीब दो दशक से नीतीश कुमार सत्ता के शीर्ष पर हैं। इस बीच वे लालू प्रसाद के पाले से बीजेपी के पाले में और बीजेपी के पाले से लालू के पाले में जा चुके हैं। एकबार फिर, वे लालू के खेमे में जाने का मन बना चुके हैं। लालू यादव को छोड़कर जब वे बीजेपी के साथ आये तो लालू यादव ने उन्हें ‘पलटू राम’ की उपाधि से नवाजा।
1970 के दशक में कहा जाता था कि आंदोलनों व परिवर्तनों के जरिये बिहार देश की राजनीति के केंद्र में रहता है। परंतु राजनीतिक तौर पर आज बिहार में सत्ता ही केंद्र में है।
2014 में केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद देश के पिछड़े पूर्वीं भाग को उन्नति और विकास में आगे लाने के संकल्प के साथ सरंचनात्मक विकास का काम तेज गति से हुआ। सड़के व बड़े-बड़े पुलों के निर्माण का कार्य शुरू हुआ और दशकों से अधूरे पड़े कार्यों को पूरा किया गया। परंतु, बिहार में ढीली व पस्त शासन व्यवस्था से जरूरी गति नहीं मिल पायी। इसके विपरित पूर्वोत्तर के राज्यों ने विकास का ज्यादा लाभ उठाया।
बिहार के सीएम नीतीश कुमार के काम की गति व कार्यप्रणाली वहीं 1970-80 के दशक के ढर्रे पर है। आज 21वीं सदी के दूसरे दशक में राज्य को 24 घंटे काम करने वाला सीएम चाहिए। बकौल, कभी नीतीश के दाहिने हाथ रहे जदयू के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष व केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह के अनुसार नीतीश कुमार मात्र सीएम हाउस से सरकार चलाने वाले नेता है। पार्टी व सरकार बस पटना तक सीमित है।
बिहार के ही बीजेपी नेता सुशील मोदी ने सांठगांठ कर अपनी पार्टी की नीतीश कुमार पर निर्भरता इस कदर बढ़ाई कि आज डेढ़ दशक से ज्यादा समय से राज्य में सत्ता में भागीदार रहने के बावजूद बीजेपी सत्ता व नेता को बिहार की सत्ता के केंद्र में नहीं बना सकी। 2020 के विस चुनाव में सुशील मोदी के टिकट बंटवारे और राजनीतिक निर्णयों से बीजेपी के जनाधार वाली सीटें भी जदयू को दिया गया जहां से दोनों पार्टियां हार गई और राजद को बड़ी कामयाबी मिली। चुनाव परिणाम के बाद बीजेपी ने सुशील मोदी को राज्य की राजनीति और सत्ता के केंद्र से किनारे लगा दिया परंतु, वर्तमान में नीतीश कुमार के पलटने की जो स्थिति बनती दिख रही है उसके पीछे भी सुशील मोदी जैसे नेता ही दिखाई पड़ते हैं।