“श्रीराम जानते हैं, यह सामान्य नहीं, ‘रामत्व व रावणत्व’ के बीच का युद्ध है। …और यह प्रत्येक युग में चलते रहने वाला युद्ध है। राम जिस युद्ध को लड़ रहे हैं, उसे वे अपनी ‘वंश-परंपरा’ की ताकत से नहीं, और न ही अपने पूर्वजों की अर्जित बल से जीत सकते हैं। इस युद्ध में वियजश्री वरण करने को उन्हें स्वयं ‘शक्ति’ से ‘आत्मसात’ करना है। वे जानते हैं- तपस्या-आराधन की यात्रा संयम, विवेक और स्थिर-चित्त से अनुरागी चित्त प्राप्ति तक की यात्रा है। बिना इसके संबलता (शक्ति) की प्राप्ति संभव नहीं है।”
डॉ. मनोज कुमार तिवारी का आलेख /रिपोर्ट4इंडिया के लिए।
दशहरा का त्यौहार नवरात्र की तपस्या कर जीवन को शुद्ध व निर्मल बनाने का है। दशहरा कठिनाइयों, विपत्तियों, अभावों में मन को स्थिर रख ‘जीवन की सीख’ (जीवनचर्या) ग्रहण करने का दिन है। असमंजस की स्थिति पर विजय पाने का दिन है। संयम, व्रत से शक्ति ग्रहण करने का समय है, जिससे आगे की जीवन-यात्रा आसानी से पूरा हो सके। किसी भी स्थिति में मन मलीन न हो, स्थिरता का भाव बना रहे क्योंकि इसी स्थिर चित्त से विजय (सफलता) प्राप्त होगी।
श्रीराम ने रावण के साथ बीच युद्ध में नवरात्र के समय तपस्या कर देवी को प्रसन्न कर उनसे शक्ति प्राप्त करने का निश्चय किया। श्रीराम ने युद्ध में देखा और महसूस किया कि रावण अकेले युद्ध के मैदान में अकेले नहीं है ‘परा’ व ‘अपरा’ शक्ति उसके साथ हैं। राम जानते है कि यह सामान्य युद्ध नहीं है, यह ‘रामत्व व रावणत्व’ के बीच का युद्ध है और यह प्रत्येक युग में चलते रहने वाला युद्ध है। राम जिस युद्ध को लड़ रहे हैं, उसे वे अपनी ‘वंश-परंपरा’ की ताकत से नहीं, और न ही अपने पूर्वजों की अर्जित शक्ति से जीत सकते हैं। इस युद्ध में वियजश्री को वरण करने के लिए उन्हें स्वयं ‘शक्ति’ प्राप्त करनी होगी। वे जानते हैं, तपस्या-आराधन संयम, विवेक और स्थिर-चित्त से अनुरागी चित्त प्राप्ति की यात्रा है। बिना इसके संबलता (शक्ति) की प्राप्ति संभव नहीं है।
‘आत्मान्वेषण’ की प्रक्रिया की पूर्णता ही ‘रामत्व’ की जीत है…रावणत्व यहां पराजित हो राम के अंदर समाहित हो जाता है, यानी सभी प्रकार के बंधन (दोष) से मुक्त निर्मल हो जाता है….जैसे गंगा नीर। गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं- निरमल मन जन सो मोहीं पावा। मोहिं कपट छल छिद्र न भावा।।
श्रीराम इसी नवरात्र में नौ दिन तपस्या में लीन हुए। उन्हें यह भी पता था तपस्या बिना परीक्षा के पूर्ण नहीं होती। नौ दिन की तपस्या में एक-एक दिन ‘चित्त’ को ‘ध्यान’ के साथ साधकर उसे गगन मंडल तक ले जाकर स्थिर करना है। चित्त थोड़ा भी डगमगाया तो वह ‘गगन-मंडल’ तक जाकर स्थिर नहीं हो पायेगा और ‘शक्ति आराधना’ अधुरी रह जाएगी।
श्रीराम योग द्वारा मन को ऊपर उठाते हैं तथा उसे ‘गगन मंडल’ में ले जाते है। यही प्रक्रिया ‘आत्मान्वेषण’ की क्रिया है। चुकि, शक्ति का मूल-स्वरूप प्रकृति में समायोजित या व्याप्त है। शक्ति यानी दुर्गा समग्र रूप में प्रकृति यानी आकाश (क्षितिज), जल, अग्नि (पावक), गगन, समीर (यहां क्षितिज और गगन में अंतर समझना जरूरी है। क्षितिज उस आभासी रेखा (horizon) को कहा जाता है, जो पृथ्वी से बहुत उपर आकाश और धरती को जोड़ती है) जिससे पुरुष बनते हैं और उसे ही साधकर राम ‘पुरूषोत्तम’ बनते हैं।
‘आत्मान्वेषण’ की प्रक्रिया की पूर्णता ही ‘रामत्व’ की जीत है…रावणत्व यहां पराजित हो राम के अंदर समाहित हो जाता है, हार जाता है यानी सभी प्रकार के बंधन (दोष) से मुक्त निर्मल हो जाता है….जैसे गंगा का नीर। गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं- निरमल मन जन सो मोहीं पावा। मोहिं कपट छल छिद्र न भावा।।