Mulayam Era : सत्ता की आंच में जला समाजवाद …

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मुलायम युग...

“जबतक मुलायम सिंह यादव संघर्ष की राजनीति में रहे, …कांग्रेस विरोध में समाजवाद का झंडा उठाये रहे। उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज़ होते ही समाजवाद कहीं दूर क्षितिज में बिला गया। बृजभूषण तिवारी, कपिलदेव सिंह,  जनेश्वर मिश्र (छोटे लोहिया), रेवती-रमण सिंह सरीखे नेता राजनीति में ‘नरक का प्रचार’ विभाग की तरह सजावटी हो गये और उनका स्थान अमर सिंह जैसे ‘मैनेजमेंट गुरु’ ने ले लिया। …‘पैसा-अपराध संरक्षित केंद्रीत राजनीति’ से कभी समाजवादी पार्टी उबर नहीं पायी …..समाजवाद की सीख सत्ता और परिवार तक सिमट गई।” 

डॉ. मनोज कुमार तिवारी/ रिपोर्ट4इंडिया।

मुलायम सिंह यादव निसंदेह जमीन से उपजे नेता थे। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में और वह भी कांग्रेस के दौर में बहुत नीचे से निकल कर वे राममनोहर लोहिया के विचारधारा से जुड़कर हेमवती नंदन बहुगुणा, बृजभूषण तिवारी, कपिलदेव सिंह, जनेश्वर मिश्र, मोहन सिंह, रेवती-रमण सिंह आदि समाजवादी नेताओं से कहीं आगे राजनीति में एक मुकाम तक पहुंचे। नेहरू-इंदिरा की जन्म व कर्म भूमि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को समाप्त करने में मुलायम सिंह की राजनीति की भी बड़ी भूमिका रही, इसमें कोई संदेह नहीं। परंतु, सत्ता प्राप्ति के बाद मुलायम सिंह की राजनीति ने लोहियावादी समाजवाद की विचारधारा को तार-तार कर दिया। उत्तर प्रदेश में राजनैतिक तौर पर लोहिया की विचारधारा मिमांसा मात्र बनकर रह गई। समाजवादी पार्टी के राजनीतिक छौंकन से भी ‘लोहिया खाद-पानी’ गायब हो गया। सत्ताधारी मुलायम सिंह ने अपनी राजनीति में समाजवाद की जो रूप-रेखा गढ़ी, उस पर उनके सहयोगी व परंपरावादी-समाजवाद के विचारक भी मौन ही रहे।

इसमें दो राय नहीं कि, सामाजिक-राजनीतिक बदलाव के दौर में 20वीं सदी का अंतिम दशक 60 व 70 के दशक के राजनीतिक चरित्र से एकदम अलग था। मुद्दे भी बदल गये और राजनीति के तौर-तरीके भी। बोफोर्स तोप घोटाले के बाद राजीव गांधी और कांग्रेस की घटती लोकप्रियता पर सवार वीपी सिंह आखिरकार प्रधानमंत्री बने और मुलायम सिंह के सिर भी सेहरा सजा। चुकि, 1989 लोकसभा चुनाव के ठीक बाद उप्र विधानसभा चुनाव हुआ और कांग्रेस को उखाड़कर जनता दल चुनाव जीत गई। तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह के न चाहते हुए भी अपनी राजनीतिक ‘दाव-पेच’ से अजित सिंह को किनारे लगा मुलायम सिंह उप्र के सीएम बने। उसके बाद मुलायम ने कभी पीछे (समाजवादी धारा को) मुढ़कर नहीं देखा।

90 के दशक में ‘मंडल-कमंडल’ की आंच और ढहती कांग्रेसी ईमारती मलवाई मुसलिम व जातिगत वोट बैंक अपना राजनीतिक भविष्य तलाश रही थी। 1992 में मुख्यमंत्री रहते अयोध्या में गोली चलाने वाले मुलायम सिंह यादव ने ‘मुल्ला मुलायम’ का कवच धारण कर लिया और इसे पूरी राजनीति कसकर पकड़े रहे। सत्ता की आंच जलती रहे, इसके लिए तुष्टीकरण की राजनीति में बदमाशों-गुंडों को भरपूर संरक्षण मिला। इस नई राजनीति में नये नारे और मुहाबरे गढ़े जाने लगे- ‘जिस गाड़ी में सपा का झंडा, समझो उसमें बैठा गुंडा।’

समाजवादी पार्टी की स्थापना और उसके संरक्षण में क्षेत्रीय क्षत्रपों के सहारे उत्तर-प्रदेश की राजनीति में अपराधीकरण और भ्रष्टाचार का एक दौर शुरू हुआ। समाजवादी साथी रहे बृजभूषण तिवारी, कपिलदेव सिंह, मोहन सिंह, जनेश्वर मिश्र, रेवती-रमण आदि की जगह  अमर सिंह, आजम खान, डीपी यादव सरीखों ने ले लिया। मुलायम सिंह यादव तीन बार उप्र के सीएम बने। चौथी बार उन्होंने ‘सत्ता का हस्तांतरण’ अपने बड़े पुत्र अखिलेश यादव को किया। देश की राजनीति में ‘समाजवाद से परिवारवाद’ का सफर मुलायम सिंह ने बखूबी तय किया।

मुलायम सिंह यादव के निधन से एक राजनीतिक युग का अंत हो गया। आज भले ही लोकसभा में उनके परिवार का एक भी सदस्य नहीं है। परंतु, एक समय था जब मुलायम परिवार के 6 सदस्य एक साथ लोकसभा मैं बैठते थे।