सांस्कृतिक-आलोक में ‘संवाद’ ही भारत की सार्थकता

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स्वतंत्रता के बाद से जानबूझकर सत्ता के समर्थन से संगठित रूप से इतिहास-साहित्य, पत्रकारिता से भारतीय धार्मिक-सांस्कृतिक विचारों व मूल्यों के खिलाफ उसी प्रकार के कूचक्र रचे जाने लगे, ऐसी भेदी बयारबहाई जाने लगी जैसा कि राममोहन राय ने अपने समय में अभिव्यक्त किया था।”

डॉ. मनोज कुमार तिवारी।

डॉ. मनोज कुमार तिवारी।

टीएस इलियट लिखते हैं कि, “ लिखने वाला अपनी समूची परंपरा में जीवित रहकर ही अपनी अभिव्यक्ति को वर्चस्वी बनाता है।“ चाहे साहित्यकार हो, इतिहासकार हो, स्तंभकार अथवा पत्रकार सबकी अभिव्यक्ति अथवा रचना पर यह सामान्य रूप से लागू होता है। आधुनिक भारत में पत्रकारिता की ‘कथा-यात्रा’ भारतीय इतिहास के सबसे अधिक उथल-पुथल काल (18वीं शताब्दी से) में शुरू होता है। इस दौर में भारतीय समाज खुद में व्याप्त अन्यान्य सामाजिक कुरीतियों से मुक्ति के लिए खड़ा हो रहा था, जो उसकी सनातन सांस्कृतिक परंपरा से नहीं, वाह्य आक्रमणकारियों के परस्पर विरोधी और जबरन थोपी गई नीतियों-व्यवस्थाओं के झंझावात के फलस्वरूप प्रकट होता है। तत्कालीन भारतीय समाज के ‘महामानव’ चाहे वे समाज व पंथगत सुधार अभियानों या राजनीतिक-आर्थिक नवजागरण के अगुआई कर रहे थे या फिर 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और 20वीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में स्वतंत्रता आंदोलन में संपूर्ण भागीदारी निभा रहे थे; वे एक साथ विदेशी राज के विरूद्ध और साथ में अनिवार्य रूप से तत्कालीन समाज में व्याप्त अंधविश्वासों, कूपमंडूकता, अमानुषिकता (सतीप्रथा, बलिप्रथा, बाल विवाह आदि कुरीतियों), पाखंडों आदि उन्मूलन को लेकर कई मोर्चों पर एक साथ खड़े थे। इसके लिए उन्होंने समाज के सहयोग से लोगों के बीच ‘संवाद’ बनाने को पत्रकारिता को अपना माध्यम बनाया। निसंदेह, इस माध्यम से वे उपरोक्त कुरीतियों-बुराइयों को दूर करने, अपनी समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा पर गर्व करने की चेतना के प्रसार के साथ ही लोगों को शिक्षित बनाने में सफल हो रहे थे। खास बात यह है कि, तत्कालीन समाज में व्याप्त उपरोक्त व्याधियों को दूर करने के हथियार के रूप में ‘प्राचीन भारतीय संस्कृति के आलोक में उन्हीं संवादों-विचारों, कार्यक्रमों को प्रतिष्ठित किया जा रहा था, जो कभी वाह्य आक्रमण के झंझावातों से एक लंबे काल प्रवाह में भारतीय समाज ‘फलक’ से क्रमश: तिरोहित कर दिए गए थे। उदाहरणस्वरूप, पिछले कई शताब्दियों से वाह्य आक्रमण, परतंत्रता से नष्ट-भ्रष्ट हुए भारतीय समाज को नई दिशा देने वाले राजाराम मोहन राय ने परिवर्तन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सती प्रथा के खिलाफ कानूनी रोक, भारतीय पृष्ठभूमि पर आधारित विधि निर्माण की मांग के साथ ही उस काल में जो ‘हिदूत्व’ का मजाक उड़ाया जाता था, उसका जवाब भी उन्होंने पत्रकारिता के माध्यम से 1821 में अपने अंग्रेजी व बांग्ला में प्रकाशित ‘ब्रह्मैनिकल मैग्जिन’ से दिया। …इस कड़ी में अन्यान्य नाम हैं।

परंतु, स्वतंत्रता के बाद से जानबूझकर सत्ता के समर्थन से संगठित रूप से इतिहास-साहित्य, पत्रकारिता से भारतीय धार्मिक-सांस्कृतिक विचारों व मूल्यों के खिलाफ उसी प्रकार के कूचक्र रचे जाने लगे, ऐसी ‘भेदी बयार’ बहाई जाने लगी जैसा कि राममोहन राय ने अपने समय में अभिव्यक्त किया था।

देश में भारतीयता व भारतीय संस्कृति का विरोध तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कांग्रेस के सत्ता-सहयोग से वामपंथी विचारकों ने शुरू किया। निसंदेह, यह प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल से ही सामने आने लगा था। शुरुआती दौर में सरकारी शैक्षणिक प्रतिष्ठानों, अकादमियों, रिसर्च के नाम पर स्थापित विभिन्न विषयक संस्थानों, आयोगों पर वामपंथी विचारकों ने शनै:-शनै: कब्जा जमाना शुरू किया। दरअसल, देखें तो महात्मा गांधी के विचारों व कार्यक्रमों के विरोध में नेहरू ने बिना किसी तर्क के मार्क्सवाद के दार्शनिक पहलु को स्वीकार किया और इसके बलबूते मार्क्सवादी इतिहास-दर्शन में हिन्दू धर्म-संस्कृति विरोधी दृष्टिकोण और गतिविधियों को बढ़ावा मिला। अनेक अवसरों पर नेहरू ने कम्युनिष्टों के उद्देश्यों का समर्थन किया। उनके नेतृत्व में ही कांग्रेस का वाम पक्ष ‘मेरठ षडयंत्र’ का समर्थक था। हालांकि, कई मौकों पर नेहरू का अंतर्विरोध भी सामने आता रहा है लेकिन उन्होंने कार्य-व्यवहार में किया ठीक इसके उलट। उदाहरणस्वरूप देखें तो, महात्मा गांधी भारत के संदर्भ में गांव को ईकाई के रूप में स्वीकार करने के दृढ़ प्रतिज्ञ थे। उनका मानना था कि भारत के पुनर्निर्माण का आधार गांव ही हो सकते हैं। जबकि ठीक इसके विपरित नेहरू ने गांवों को बौद्धिक-सांस्कृतिक दृष्टि से पिछड़ा बताया और नगरीय संस्कृति को राज्य के विकास का आधार बनाया। वहीं, दूसरी तरफ, पंडित नेहरू भारतीय वामपंथी नेतृत्व वर्ग की इस आधार पर आलोचना करते रहे कि भारतीय कम्युनिष्ट नेतृत्व वर्ग शहरी पृष्ठभूमि से आता है और उनका बड़े पैमाने पर भारतीय ग्रामीण जनता से कोई सम्पर्क नहीं है। ऐसे कई अवसरों पर नेहरू की नीतियों-कार्य व्यवहारों में परस्पर विरोधाभास दिखाई देता है (1950-60 के दशक में राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद और गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल के प्रधानमंत्री नेहरू के साथ नीतिगत मामले में भिन्न विचारों के संदर्भ में हम देख सकते हैं)।

फलस्वरूप, नेहरू ने आजाद भारत में ऐसी व्यवस्था को जन्म देने में मदद की, जिसमें वामपंथी विचारधारा से संपन्न वर्ग जो, लोकतांत्रिक रूप से तो देश की बहुसंख्यक जनता में हमेशा से हाशिए पर और विरोध भाव में रहा, पर सत्ता-प्रतिष्ठानों पर ऐसा कब्जा जमाया कि वे पूरी शासन-व्यवस्था को अपने तरीके से हिलाते रहे। देश के विश्वविद्यालयों, शिक्षण संस्थाओं, पाठ्यक्रमों, अकादमियों, संघ व राज्य सेवा आयोगों में गहरे रूप में वामपंथी विचारों से लैस तथाकथित विद्वान जुड़ गए। इन्होंने एक ‘श्रृंख्ला-प्रतिक्रिया’ के रूप में काम करना शुरू किया। चुकि, कांग्रेस को हर हाल में सत्ता चाहिए थी, वोटबैंक की नीति पर अवलंबित ‘थोथी धर्मनिरपेक्षता’ के तानेबाने में लोकतंत्र को ढालने का काम होने लगा। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर देश से हिन्दू प्रतीकों, संस्कृतियों को विनष्ट करने का काम शुरू हुआ। भारतीय राष्ट्रवाद से इतर ‘नेशन स्टेट’ की थ्यूरी पर सबकुछ रंगा जाने लगा। यहां तक कि बच्चों की मनोहर पोथी के ‘ग’ से ‘गणेश’ से लकेर ‘गंगा’ और ‘गाय’ सब ‘सांप्रदायिक’ हो गए। खालिस द्विराष्ट्र के नाम पर भारत को विभाजित कर दिए जाने के बाद भी देश में वामपंथी पत्रकारों-इतिहासकारों-साहित्यकारों ने खुलकर तथाकथित ‘धर्मनिरपेक्षता’ के आधार पर भारतीय सांस्कृतिक परंपरा और प्रतीकों को पदलित करने का षडयंत्र शुरू किया। कांग्रेस काल में ‘धुनी रमाती’ पत्रकारिता एक पक्षीय सबकुछ देखती रही और राजनीति उसे निर्धारित करती रही। तथाकथित बड़े पत्रकारों का पूरा ‘धर्म’ बदल गया। तभी तो भारतीय संस्कृति के प्रबल समर्थक रहे डॉ. विद्या निवास मिश्र को उस दौर में कहना पड़ा, ‘मीडिया भी हमारा साथ नहीं देता।‘

स्व. इंदिरा गांधी के सूचना एवं प्रसारण मंत्रित्व के कार्यकाल में 1965 में भारतीय जनसंचार संस्थान और उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद 1969 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद वामपंथी पत्रकारों-साहित्यकारों, शिक्षाविदों ने देश, काल और परिस्थिति से फायदा उठाते हुए सरकारी संस्थाओं पर अपनी पकड़ तेजी से मजबूत की। वे सरकारी नीतियों को प्रभावित करने लगे। ‘देश की संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का’ बताने वाले मनमोहन सिंह के काल में तो यह साफतौर पर दिखा, पर चल तो यह नेहरू के जमाने से ही रहा था।

दरअसल, कांग्रेस के छद्म धर्मनिरपेक्षवाद, वोटबैंक की नीति और हिन्दू संस्कृति पर चोट का पूरजोर विरोध सांस्कृतिक संगठन के तौर पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और राजनीतिक पार्टी के तौर पर जनसंघ व बाद में भारतीय जनता पार्टी करती रही और आज स्पष्टत:  देश की बहुसंख्यक जनता ने कांग्रेस की नीति को गलत माना।

असल में, कांग्रेस को सत्ता में बने रहने के लिए ‘तथाकथित अल्पसंख्यकों’ का एकतरफा समर्थन हमेशा से जरूरी रहा, पर उन्होंने यह समर्थन विकास व प्रगति से हासिल नहीं किया। बल्कि, इसके पीछे डर व भय का वातावतरण पैदा किया गया। उन्हें यह जताया जाता रहा कि कांग्रेस ही भारत में उनकी व उनके धर्म की सुरक्षा कर सकती है। इस तरह से समझें कि, शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला पलटना ‘वोटबैंक’ का ‘क्लाइमेक्स’ था और यह उस राजीव गांधी की सरकार ने किया जिसे स्वतंत्र भारत में अबतक की सबसे ज्यादा लोकसभा की सीटें मिली थी। इसका सीधा नुकसान मुस्लिम महिलाओं को हुआ पर तत्कालीन मीडिया व वामपंथी रचनाकार-साहित्यकार चुप ही रहे।

1990 के दशक में देश में इलेक्टॉनिक मीडिया का युग शुरू होता है। यह वह काल है जब देश में कांग्रेस उत्तरोत्तर कमजोर होती जा रही थी। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी विशाल जनमत (415 सीटें) प्राप्त करते हैं जो 1989 में घटकर 191 सीटें और राजीव गांधी की हत्या के बाद 1991 में 10वीं लोकसभा चुनाव में 224 सीटें प्राप्त करती है। जबकि भारतीय जनता पार्टी के लिए उत्तरोतर उत्कर्ष का काल रहा। 1984 में बीजेपी को जहां मात्र 2 सीटें प्राप्त होती है वहीं, 1989 में 86 सीटें, 1991 में 117 सीटें, 1996 में 162 सीटें और 1998 में 179 सीटें व 1999 में 182 सीटें प्राप्त करती है। इस दौर में, राष्ट्रीय फलक पर बीजेपी का फैलाव न केवल भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव के शुभ आचरण के तौर पर दिखाई देता है बल्कि उससे कहीं अधिक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की राष्ट्रीयता, भारतीयता यानी भारत में ‘पीढ़ी दर पीढ़ी रहने वाले लोगों का ‘सांस्कृतिक स्वभाव’ जो एक लंबी व निरंतर प्रक्रिया से अनवरत स्वरूप ग्रहण करती है, उसकी सहर्ष स्वीकारोक्ति है। यह कांग्रेस व कांग्रेस के समर्थन में वामपंथियों के प्रत्यक्षत: ‘नेशन स्टेट’ और अप्रत्यक्ष रूप में देश विभाजन के बाद भी एक प्रकार से ‘हिडेन एजेंडा’ के रूप में ‘टू नेशन थ्यूरी’ को जिंदा रखने की अवधारणा पर करारा प्रहार है। महत्वपूर्ण यह है कि देश के राजनीतिक मिज़ाज़ में यह परिवर्तन तब है, जब देश में बड़ी संख्या में रहने वाले अल्पसंख्यकों (मुसलमानों) को संघ व बीजेपी से अलग रखने के लिए सरकार व नीति  स्तर नेहरू के काल से लेकर अबतक प्रयास किया जाता रहा था। यहां तक कि हिन्दुओं में भी जातिवाद, क्षेत्रवाद, अमीर-गरीब, ऊंच-नीच, आदिवासी आदि के नाम पर बांटने का उपक्रम चलता रहा।

30 साल बाद पहली बार बीजेपी की पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद हतप्रभ कांग्रेस व वामपंथी तथाकथित बौद्धिक वर्ग जिसमें देश में बड़े नाम वाले पत्रकारों, साहित्यकारों, बड़े वामपंथी रूझान वाले फिल्मकारों, लंबे समय से विवि में जमे वामपंथी प्राध्यापकों, वामपंथ विचारों से सजे-धजे अरविंद केजरीवाल आदि ने ‘दादरी’ से लेकर ‘बेमुला’ और   ‘जेएनयू’ तक गज़ब की सरकार विरोधी माहौल तैयार करने की कोशिश की। इस मुहिम में वामपंथी विचारों से संबद्ध पत्रकारों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। इन पत्रकारों, मीडिया संगठनों ने जेएनयू में देश विरोधी गतिविधियों को उजागर करना तो दूर, परिसर में छात्रसंघ के अध्यक्ष के नाते राष्ट्र विरोधियों के नेतृत्वकर्ता का ‘लाइव भाषण’ दिखाकर उसे पीएम के समकक्ष दिखाने की निर्लज कोशिश ही नहीं की गई, बल्कि राष्ट्रीय फलक पर उस पर चर्चा का आयोजन किया गया। पुरस्कार वापसी व ‘टोलरेंस स्तर’ की माप का बखेड़ा भी इस संदर्भ में रहा। जबकि यह सवाल पूरी तरह से तिरोहित कर दिया गया कि राष्ट्रीय राजधानी में एक केंद्रीय विवि में ‘देश के टूकड़े’ करने की कसम खाने वाले भी कोई ‘मुद्दा’ हैं या हो सकते हैं। बल्कि एक चैनल पर दिखाई गई वीडियो फुटेज को नकली बताने की कोशिश की गई।

दरअसल, देश में वामपंथी पत्रकारों का दल भारतीय संस्कृति, उसकी छवि को एक ‘बृहत विषय रूप’ में नहीं बल्कि हमेशा बहुसंख्यक जनता के ‘भाव-सरोकार’ के विपरित ‘धर्मनिरपेक्षता का मुलम्मा’ लगाकर सवाल खड़ा करता रहा है। वहीं, वे वामपंथी विचारक के साथ ‘सेकुलर स्टेट’ की आवरण में ‘फतवा’, ‘तीन तलाक’ आदि मुद्दे को नज़रअंदाज करते रहे हैं।

उदाहरणस्वरूप देखें, जमीयत उलेमा के मुफ्ती ने बयान दिया था कि, भगवान शंकर हमारे पहले पैगम्बर थे और साथ ही, हिन्दुस्तान में रहने वाले सारे ‘हिन्दू’ हैं, यह वैसे ही जैसे… पाकिस्तान के रहने वाले पाकिस्तानी, अमेरिका के रहने वाले अमेरिकी, चीन के नीची व जापान के जापानी। इस पर समस्त वामपंथी पत्रकारों ने बवेला खड़ा कर दिया। उन्होंने ‘शंकर पैगम्बर हैं या नहीं’ इस विषय को तो परे रखा, पर मुफ्ती के भारत ‘हिन्दू राष्ट्र’ की अवधारणा पर सवाल खड़े किए। साथ ही, यह बताने की कोशिश की गई कि, कहीं न कहीं मुफ्ती ‘आरएसएस’ के विचार को आगे बढ़ा रहे हैं।

दरअसल, केंद्रीय शासन के रूप में कांग्रेस को वैचारिक समर्थन और बीजेपी-आरएसएस का विरोध वामपंथी पत्रकारों का मुख्य एजेंडा रहा है। इसीलिए, कांग्रेस सरकार में वामपंथी पत्रकार सरकारी सुविधाओं का भरपूर लाभ उठाते रहे हैं, भ्रष्टाचार में सराबोर हो जाते हैं। दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल के एक डॉक्टर ने मुझे बताया कि वह चिकित्सक दल के रूप में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ विदेशी दौरे पर जाते रहे हैं। ‘विमान में पत्रकारों का बड़ा दल भी प्रधानमंत्री के साथ मौजूद रहता था। इनके लिए वहां शराब और अन्य सुविधाएं भरपूर मात्रा में उपलब्ध होतीं थीं। यात्रा के दौरान पत्रकारों का केबिन शराब के दुर्गंध व सिगरेट के धुएं से भरा रहता था।‘

वही बात जहां से शुरू किया था, …“ लिखने वाला अपनी समूची परंपरा में जीवित रहकर ही अपनी अभिव्यक्ति को वर्चस्वी बनाता है।…जैसे भारतीय मन-जीवन का ‘समग्र सत्य’ ‘राम-नाम’ में सिमटा रहता है, वैसे ही पत्रकारिता का ‘सत्य’ अपने सांस्कृतिक तत्वों की अवहेलना कर, उसे परे रख, उसकी आलोचना कर भला कैसे जिंदा रह सकता है? भारत के संदर्भ में, उसकी सनातन संस्कृति-जीवन, योग-आध्यात्म-विज्ञान-पर्यावरण, ‘मंत्र’-साधना का निरंतर विकास और उसकी उपयोगिता तो हर हाल में बनी ही रहेगी।“ (लेखक स्तंभकार और रिपोर्ट4इंडिया में संपादक है)