प्रभु का स्वभाव है प्रकृति , उनके संरक्षण में ही ‘आरोग्यता’ की प्राप्ति 

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प्रकृति प्रभु का ही एक स्वभाव है; इसलिये इसका नाम 'प्रकृति' है

श्रीमद्भागवद् को व्याख्यायित कर स्वामी रामसुख दासजी कहते हैं –

” परमात्मा सबके कारण हैं। वे प्रकृति को लेकर सृष्टि की रचना करते हैं, जिसका नाम ‘अपरा प्रकृति’ है। …और जीव उस प्रकृति का जो अंश है, उसे भगवान् ‘परा प्रकृति’ कहते हैं। अपरा प्रकृति निकृष्ट, जड़ और परिवर्तनशील है। परा प्रकृति श्रेष्ठ, चेतन और परिवर्तनशील है। प्रत्येक मनुष्य का भिन्न-भिन्न स्वभाव होता है। जैसे स्वभाव को मनुष्य से अलग सिद्ध नहीं कर सकते, ऐसे ही परमात्मा की प्रकृति को परमात्मा से अलग (स्वतन्त्र) सिद्ध नहीं कर सकते। यह प्रकृति प्रभु का ही एक स्वभाव है; इसलिये इसका नाम ‘प्रकृति’ है।”

report4india /Adhyatma & Yoga Desk.

वर्तमान चिकित्सा प्रणाली के मूल में मुख्यत: दो प्रवृत्तियां हैं। प्रथम यह कि मनुष्य को, जैसा कि प्रकृति चाहती है, पूर्ण स्वस्थ, निरोग, पुष्ट, दीर्घजीवी, उन्मुक्त किस प्रकार रखा जाय। अर्थात् स्वास्थ्य के संरक्षण के लिए किन-किन प्राकृतिक नियमों का पालन करना चाहिए। इन प्रणालियों से उन प्राकृतिक नियमों का प्रतिपादन किया जाता है जिनसे मनुष्य प्रकृति के निकट आता है और साहचर्य द्वारा पूर्ण स्वस्थ रहता है।

नियम यह है कि प्रकृति से हम जितनी दूर जायेंगे अर्थात् प्रकृति नियमों का अतिक्रमण करेंगे, उतने ही रोगी दुःखी और दीन-हीन होंगे। जितने ही प्रकृति के समीप रहेंगे, प्राकृतिक नियमों का पालन करेंगे, उतने ही स्वस्थ रहेंगे। प्रकृति के समीप रहना हमारा आदर्श है।

दूसरा है रोग का निवारण। प्रकृति के नियमों की अवहेलना करने से यदि हम रोगी हों जायें, तो पुनः किस प्रकार स्वास्थ्य लाभ करें? इसका उत्तर होगा कि हम पुनः प्राकृतिक नियमों का पालन करने लगें, दूरी छोड़कर पुनः प्रकृति के समीप आएं। सभी चिकित्सा प्रणालियां किसी न किसी रूप में प्रकृति के समीप आने की चेष्टा करती है।