शास्त्र से सम्मति : विद्वान या विद्यावान कौन …क्या कहते हैं हमारे धर्म ग्रन्थ

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“विद्या, गुरु व शिष्य के संबंध हमारे धर्म-शास्त्रों में अलंकार के रूप में निरुक्त हैं। गुरु-शिष्य भाव को स्थिर रखने, विद्या को तेजस्वी बनाकर उसे सुरक्षित रखने का सुंदर उपाय है। प्राचीन समय में प्रत्येक गुरु गृह साक्षात गुरुकुल था। आचार्य पिता और गायत्री माता थीं।”

रिपोर्ट4इंडिया/ नवनीत। 

सुहृद्भिराप्तैसकृद्विचारितं
स्वयं च बुद्धया प्रविचारितं पुन:
करोति कार्यं खलु प: स बुद्धिमान्
स एव सौक्यं बहुधा समश्रुते।।

अर्थात् मित्रों और बुद्धिमान पुरुषों से बार-बार सम्मति लेकर और स्वयं अपनी बुद्धि से विचार कर जो पुरुष काम करता है वह बुद्धमान कहलाता है और सदा सुख पाता है।

विद्या-देवी का कहना या निवेदन है कि जो निन्दक, कुटिल स्वभाव वाले हैं, ब्रह्मचर्य व्रत से शुन्य हैं, उन्हें मैं प्राप्त नहीं। जो शुचि-शुद्ध है, मनसावाचा कर्मणा एक रूप है, अप्रमत्त-प्रमाद-रहित है, मेधावी है, ब्रह्मचारी है और किसी भी दशा में ‘ब्रह्म’ के साथ द्रोह-बुद्धि रखने वाला नहीं है, वहीं बुद्धि प्राप्ति के अधिकारी है, वही सच्चा निधिष है अर्थात् वही बुद्धि अथवा ज्ञान का रक्षक है।

विद्या का कहना या निवेदन है कि जो निन्दक, कुटिल स्वभाव वाले हैं, ब्रह्मचर्य व्रत से शुन्य हैं, उन्हें मैं प्राप्त नहीं। जो शुचि-शुद्ध है, मनसावाचा कर्मणा एक रूप है, अप्रमत्त-प्रमाद-रहित है, मेधावी है, ब्रह्मचारी है और किसी भी दशा में ‘ब्रह्म’ के साथ द्रोह-बुद्धि रखने वाला नहीं है, वहीं बुद्धि प्राप्ति के अधिकारी है, वही सच्चा निधिष है अर्थात् वही बुद्धि अथवा ज्ञान का रक्षक है।
जो भी उपरोक्त तत्व को नहीं समझता है, मन, वचन, कर्म के द्वारा गुरुओं का आदर नहीं करता है, वह चाहते हुए भी न तो गुरु द्वारा रक्षा किया जा सकता है और न ही गुरु से प्राप्त विद्या उसे सफलता देती है ….अर्थात् उसका अध्ययन निष्फल हो जाता है। कदाचित्, …अंत में कर्ण के साथ ऐसा ही हुआ, जबकि वह एक अच्छा शिष्य था। दरअसल, गुरु फिर शिष्य के कल्याण चाहता है, परंतु, ऐसा हो नहीं पाता क्योंकि यह तो ‘विद्या की देवी’ का नियम है।